सुई और भाला
उसने भोंका भाला,
सह्य था,
सह गया,
उससे मुझे इसी की थी आशा,
फिर किस बात का करता तमाशा?
उसकी प्रतिशोधी भाले की धार,
न सकी मुझे मार,
मैं फूलता-फलता गया.
न रुका,
न झुका,
बस, मंजिल की ओर चलता गया.
मगर तुमने-
भाला नहीं
एक छोटी सी सुई चुभोई,
असह्य पीड़ा हुई,
आत्मा रोई.
सारा शरीर निढाल हो गया,
जैसे सब कुछ जाता रहा,
बुरा हाल हो गया.
दुश्मन का भाला
जख्मी तो कर गया,
पर दुश्मनी का ऋण उतर गया.
पर तुम्हारी सुई -
अत्यंत घातक साबित हुई,
रोम-रोम जल उठा,
दिल-दिमाक गल उठा,
आँखें सूनी हो गईं,
भावनाएं खो गईं,
दोनों होठ सिल गए,
और तुम –
भले नजदीक रहे
पर बहुत दूर निकल गए.
यदुराज सिंह बैस
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