तुम,
होठों पर ताला,
हजार झड़ वाला,
चाभी भी गुम
बैठे गुमसुम,
यह खामोशी कितनी अज़ीब है?
पर यह मौन कितना मुखर है,
कितना वाचाल है,
सजीव है.
अपने होठों पर ताला
तुमने ज़रूर डाला,
पर तुम्हारे नयनो की
खिड़की खुली है,
जो
अन्दर का सारा भेद,
बाहर उगल देने पर तुली है.
होठ अनुशाषित हैं,
इसीलिए बंद हैं,
पर तुम्हारी आँखें,
नटखट हैं,
अतः निर्बंध हैं.
इन चुगलखोरों की
बेबाक गर्मजोशी,
चौपट कर रही हैतुम्हारी खामोशी.
यदुराज सिंह बैस
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