कहानी
इधर बुढ़ापा,
उधर जवानी,
इसी के बीच
सारी कहानी.
तुम हो रहे बड़े,
अपने पैरों पर खड़े,
और मैं बूढ़ा
जो उत्तरोत्तर
जीर्ण-जर्जर हो रहा,
योवन का सारा सार
खो रहा.
तुम्हें बढ़ता देखना
सुहाता है,
तुम्हारा विकास,
तुम्हारा तेज,
मन को भाता है,
पर मेरा तजुरबा
कुछ दीपों के जरिए
कुछ समझाता है,
एक अलग कहानी सुनाता है,
और मुझे हर समय डराता है.
एक रात
पास-पास
दो दीये वले,
पर जिसकी लौ
तेज रही
सारे शलभ
उसी की ओर चले,
उसी पर मंडराए,
उसी में जा
जले.
पर ये दिव्यता
के चोर,
मूर्ख बरजोर,
जब बिफर कर आते
हैं,
लौ पर छाजाते
हैं,
तो सबसे पहले
तेज दीप्ति
वाला
दीप ही बुझाते
हैं.
यही देख कर
लगता है डर.
दूसरी ओर
एक दीप
जिसमें भरा है
लबालब तेल,
और दूसरा,
जिसके तेल का
समाप्ति पर है खेल,
दोनों पर ही
समय का शिकंजा
है,
जो निरंतर
जकड़ता
बेरहम पंजा है.
तुम्हारा तेज
पराक्रम के
शिखर की ओर,
थामें पौरुष की
सबल डोर,
जब आगे बढेगा,
तब मेरा सूरज
शनैः-शनैः
ढलेगा.
और
अँधेरे या
शून्यता की छाया गढ़ेगा.
पर ऐसा सुना है
कि
तब भी
वह तत्व,
जो अजन्मा है,
अक्षय है,
अविनाशी है,
सलामत रहेगा.
क्या पता-
फिर किसी फूल
या कांटे के रूप में,
यह रूह फिर आए,
और बिफराए मौसमों
की मार सहे,
या
फिर किन्ही
आँखों में आंसू बन छलके,
या किसी
मेहनतकश का स्वेद बन बहे,
या एक नयी कहानी
बने,
जिसको समय
अपने निरंकुश
लहजे में-
लिखे,
पढ़े,
या कहे.
यदुराज सिंह
बैस
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