Monday, 15 July 2013

पानी का बुलबुला, हवा मिली फूल गया

बुलबुला

 

पानी का बुलबुला
हवा मिली
फूल गया,
अस्तित्व बन गया,
अहंकार तन गया,
असलियत भूल गया.
पानी की झिल्ली
उड़ाने लगी खिल्ली,
और जब पानी का
पतला नाज़ुक खोल
रिसा या टूटा,
हवा निकली
बुलबुला फूटा.
अस्तित्व मिट गया,
अहंकार पिट गया,
शून्य में सिमट गया.

इतना ही कथ्य था,
इस नन्ही कहानी में,
कि
हवा-
हवा में मिली,
और पानी-
पानी में.

बुलबुले का बनना,
पानी से प्रथक,
एक सर्वथा अलग
अस्तित्व का तनना,
फूलना-इतराना,
अनंतता के आगे,
छाती फुलाना,
आँखें मटकाना,
और इस सब के बाद
अचानक फूट जाना,
अलग अस्मिता का अड़ियल अहंकार
स्वप्न वत टूट जाना,
वैयक्तिकता की इकाई का
अनंत में खो जाना,
और द्वेत मिट कर
अद्वेत हो जाना,
आदि आदि
कुछ कहता है-
कि सारे बुलबुलों में
सिर्फ हवा-पानी रहता है.
ये नाम और रूप
मिटने के लिए ही बनते हैं,
और ये दंभ भरे आकार
सपनों की भांति ही तनते हैं.
बुलबुले का ये जीवन
असल में फानी है,
कहने सुनने के लिए
एक निरर्थक कहानी है.
समय आकाश द्वारा
रची मृगतृष्णा है,
न ही बुलबुला है,
और न ही कहीं पानी है.
अगर कुछ है तो
सिर्फ एक सत है.
और यही ऋषि-मुनिओं का मत है.
यही सत सबका आधार है,
इन बनते बिगड़ते
नाम रूपों का सार है,
वह तो अमिट है,
न तो बनता है
न बिगड़ता है,
सिर्फ वही है
जो हर हाल में बना रहता है.

जब मिलन का,
बिछोह का,
समस्त माया मोह का
हाल यही होना है,
तो मेरे भाई-
किस बात का ये रोना-धोना है.


यदुराज सिंह बैस





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