Sunday, 21 July 2013

ऐसा क्यों होता है कि जब दिन ढलता है, तो दिगंत का धवल शरीर किसी धधकती आग में जलता है?

ऐसा क्यों होता है?


ऐसा क्यों होता है
कि जब दिन ढलता है,
तो दिगंत का धवल शरीर
किसी धधकती आग में जलता है?
जैसे सोना पिघलता है?
और जब शाम होती है,
तो दिन की सारी भव्यता
खून के आँसू रोती है?

और ऐसा भी क्यों होता है
कि कोई
सर्वस्व खोने के बाद ही कुछ पाता है?
या पाने के लिए सब कुछ खोता है?
या यह
कि है ये कैसा दस्तूर
कि संध्या द्वारा लुटाया सिन्दूर
हो कर मजबूर
किसी और के सुहाग को छले?
और तब जाकर
किसी अभागे के घर चूल्हा जले.

अनेक विसंगतियों से भरी,
समय की गगरी,
कुछ यों छलकती है,
जैसे किसी अशांत झील में
कोई बिम्बित छबि -
बनती है,
बिगड़ती है,
और बिखरी हुई झलकती है.

इस उद्दंड काल की लगाम
कौन रहा थाम?
कोई तो है -
जो बदल कर रूप और नाम,
इस अविराम काल को
देता विराम.

इस दीनता-मलीनता को,
क्यों कोसें?
क्यों करें बदनाम?
यह तो बस शाम हो रही है,
आओ,
इस अस्तांगत सूर्य को
करलें प्रणाम!!
क्योंकि दिन ढल चुका है,
और यह सूर्य
जितनी आग उगल सकता था
उगल चुका है.
अब यह निश्चित है
कि रात आएगी,
दिन की विक्षिप्त भागमभाग
थम जाएगी,
और तब ममता भरी रजनी,
थके-हारे जख्मों पर
नींद का मरहम लगाएगी.

तुम भी थके लगते हो,
अपनों से ठगे लगते हो,
काँटों भरी डगर चले हो,
दूध के जले हो,
जख्म जो बह रहे हैं,
तुम्हारी यात्रा की
सारी कहानी कह रहे हैं.
तुम्हारी क्षमताएँ
बोझिल हैं,
लाचार हैं,
स्तंभित से हाव-भाव हैं
उलझे से विचार हैं.
अस्तु
समय आ गया है,
सो जाओ,
नींद के प्रशांत प्रांगन में
सब कुछ भुला कर
खो जाओ.

यदुराज सिंह बैस


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