मैया के द्वारे एक कुआँ है,
जिसके अन्दर आग ही आग है,
और बाहर धुआँ ही धुआँ है.
कुएँ के अन्दर आग धधक रही है,
इसलिए नहीं-
की उसमें गिर कर कोई जल जाए,
बल्कि इसलिए-
कि उसे देख कर-
हर कोई संभल जाए.
और खुदा-न-खास्ता,
अगर कोई उसमें गिर जाए,
जल जाए,
तो
चैतन्य बच जाए,
और धुआं निकल जाए.
इसीलिए-
मैया के द्वारे एक कुआँ है,
जिसके अन्दर धधकती आग है,
और बाहर धुआँ है.
धुएँ को देख कर
डरता हुआ,
आहें भरता हुआ
कभी जीता हुआ,
कभी मरता हुआ,
मैं भी माता के द्वार आया था,
जहाँ चारों ओर धुआँ ही धुआँ छाया था.
मैं असहाय
धुएँ में फँस गया,
असमंजस ऐसा कि
कुएँ में गिर गया,
आग में धँस गया
ऐसे में-
सब कुछ जलने लगा-
जो भ्रम था
या माया था,
और तो और-
जो हमेशा साथ रहा
वह साया भी गँवाया था.
फिर वही हुआ
जो होना था,
चैतन्य में से धुआं निकलना था,
सो निकल गया,
सारा अहंकार जलना था
सो जल गया.
जो बचा-
वह खरा सोना था.
मेरा “मैं”
समूल गायब हो गया,
सारा द्वेत
जाने कहाँ खो गया,
और
उस ज्वाला के पावन प्रकाश में
अज्ञान का अँधेरा छंट गया,
माया का आवरण फट गया.
तब
बस आग ही आग रही,
न द्वेष रहा,
न राग रहा,
कुछ ऎसी अजीव दास्ताँ रही,
कि-
“मैं” और “मेरा” के स्थान पर-
सिर्फ माँ ही माँ
रही.
सभी कुछ नगण्य
था,
अधूरा था,
बस
मैया का स्वरुप
ही पूरा था,
चैतन्य के उस
संस्फुर प्रवाह में-
मन का सारा मैल
बह गया था,
द्वेत और
द्वंदों के स्थान पर-
आनंद ही आनंद
रह गया था.
और तब जाकर
समझा-
कि
न कहीं कोई घर
था,
न द्वार था,
न मोहक संसार
था,
न कोई कुआँ था,
न आग थी,
न धुआँ था,
न काल का
कारागार था,
न आकाश का
विस्तार था,
बस एक ही
अंतहीन रूप था,
चारों ओर-
माँ का ही
स्वरुप था!!
यदुराज सिंह
बैस
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