Tuesday, 18 June 2013

उस अंतिम ठोकर को मैं अभी से सलाम करता हूँ, THOKAR

ठोकर

हताशा,
प्रत्याशा,
या निराशा द्वारा
लगाई गई हर ठोकर ने,
अपमान,
तिरश्कार,
वहिस्कार द्वारा,
लगाई गई हर ठोकर ने;
अपकार,
अवमानना या
अक्रतज्ञता द्वारा   
लगाई गई हर ठोकर ने,
मुझ पर
एक उपकार अवश्य किया है,-
मुझे एक कदम उस ओर ढकेल दिया है
जिधर मेरे राम विराजमान हैं.

भले ही रही मेरी मजबूरी,
पर मेरे और मेरे प्रभु के बीच दी दूरी
तो घटती जा रही है,
वो अगम्य खाई-
जो दुर्गम पड़ती थी दिखाई,
इन ठोकरों की कृपा से
अपने आप पटती जा रही है.
प्रभु से बढ़ती निकटता में
ठोकरों की विकटता सुहावनी लगती है.
अब तो मेरे हृदय की
सारी कृतज्ञता
उस अंतिम ठोकर के लिए सुरक्षित है,
जिसकी मार से,
प्रवल प्रहार से,
मैं लड़खडाता हुआ,
त्राहि माम पुकारता हुआ,
करुनानिधान के,
अपने भगवान के,
हाथों में जा गिरूंगा.
और वे सरणागत-वत्सल,
मुझे उठा लेंगे,
क्योंकि
उनका साश्वत आश्वासन है,
कोटि विप्र वध लागहि जाहू,
आए शरण तजहूँ नहि ताहू   
वे रखेंगे मर्यादा अपने इस वचन की,
वे मुझे स्वीकारें गे अवश्य,
और देंगे जगह अपने चरणों में!
अतः
उस अंतिम ठोकर को
मैं अभी से सलाम करता हूँ,
प्रतीक्षा में उसके इस अहसान की,
सर झुकाए बैठा हूँ,
पलकें बिछाए बैठा हूँ.


यदुराज सिंह बैस

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