Friday, 20 February 2015

मांझी


धुंध में, रात में, या कि बरसात में,
आंधियों में, सहज नाव खेता रहा।
चाहे डर हो, भंवर हो, या कोई कहर
मेरा मांझी सदा साथ देता रहा।

              घोर प्रारब्ध के जाल में था फंसा,
              भागता भी अगर तो कहाँ भागता।
              आँख रोती रही, बुद्धि सोती रही,
              वो लहर दर लहर था रहा जागता।

गफलतों से लुटा, मुश्किलों से पिटा,
हसरतें आग दिल में लगातीं रहीं;
उसकी मुसकान वीणा बजाती रही
मेरे कानों को अमृत पिलाती रही।

                      मेरी कस्ती को उसका सहारा मिला,
               डूबते को नदी का किनारा मिला।
               शोर घनघोर में, पीर पुरजोर में,
               शांत संजीवनी का पिटारा मिला।

लोग आते रहे, लोग जाते रहे,
लोग बातें बहुत सी बनाते रहे,
ज्ञान की म्यान से खींच कर युक्तियाँ-
लोग रस्सी से लड़ना सिखाते रहे।

               लड़खड़ाया अगर, लोग हँसने लगे;
               गर गिरा, लोग खिल्ली उड़ाने लगे।
               आंख फेरी जरा वक्त ने, भाग्य ने,
               लोग जख्मों में मिर्ची लगाने लगे।

घन घुमड़ते रहे, केश झड़ते रहे,
उम्र ढलती रही, राह खलती रही,
मेरे मांझी के रहमोकरम पर टिकी
शम्मा जलती रही नाव चलती रही।

              देखता पंथ की उग्र ढालान जब-
              कितनी जोखिम भरी हर कदम राह थी।
              ये मुझे लग रहा, उसको था सब पता,
              अब तो विश्वास है- उसको परवाह थी।

अब न चिंता मुझे घूरती धार की,
बीच मझधार की, ध्वस्त पतवार की,
मेरे माझी की बाहें सलामत रहें,

क्यों करूं मैं फिकर आर की पार की?

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