Monday, 26 August 2013

उठो राही, चलें, अब कोई न भय है.

उठो राही



दूरिओं की बात थी कुछ,
मौन निष्ठुर रात थी कुछ

वह अँधेरा,
बन सबेरा,

आज लेकर आ गया रवि का उदय है.
उठो राही,  चलें,  अब कोई न भय है.


राह हँस कर मौन है जब,
रोक सकता  कौन है तब,

सभी सपने
बने  अपने,

सुरभि संकुल पवन भी अब त्वरण मय है.
उठो राही,   चलें,   अब कोई न भय है.


भावना  का  यह  उभरना-
झर रहा बन किरण झरना,

और रुक-रुक
झूम झुक-झुक

बिहारती फिरती फ़िजाएँ भर प्रणय हैं.
उठो राही,  चलें,  अब कोई न भय है.


रोशनी से  तर प्रभाती-
स्वागतम के गीत गाती,

और   मंजिल,
खोल कर दिल,

स्वयं पथ में आ खड़ी होकर सदय है.
उठो राही,  चलें, अब कोई न भय है.


अब हमें करनी न देरी,
राह जोती    राह मेरी,

हर विजय का-
फूल   महका,

सुरभि से सन, लोटती पथ पर मलय है.
उठो राही,  चलें,   अब कोई न भय है.



यदुराज सिंह बैस






Saturday, 24 August 2013

तहजीव

तहजीव


मार्गों और मीलों की
गिद्ध और चीलों की
अभियोगों-वकीलों की
यह मिश्रित तहजीब -
जिसमें
अभिशप्त टीलों का
ताबूतों-कीलों का
हठी दलीलों का
विशेष महत्व है.

चारों ओर
भयानक शोर ही शोर है
चोरों के हाथों में ज़ोर है
ईमान की धार कमजोर है
धर्म के नाम पर दंगे
सौभाग्य के फ़रिश्ते नंगे
बगिया के माली
करते सुगंध की दलाली
सीधी-सादी जनता की बदहाली
जेब भी खाली
और पेट भी खाली
मगर भ्रष्टों के घर
हर दिन होली
हर रात दीवाली.

यह खुशहाली भी अजीव है;
ऐसी यह मिश्रित तहजीव है

हर गली में
हर सड़क पर
हर बाज़ार में
जनता दरबार में
सरकार में
लोंगों का
अजीबोगरीब रोगों का
भोग्य-अभोग्य भोगों का
ताँता लगा है
हम किसके ख़िलाफ लड़ जाहे हैं?
और इतना शोर मचाकर
हम किसे पकड़ रहे हैं?
आखिर यह दौड़
किधर जा रही है?
यह कैसी मानसिकता
जो न रानी है
न चेरी है
न तेरी है
न मेरी है
न कोई इससे दूर है
न कोई इसके पास है
आखिर सब क्या है?
कोई तो बताये-
यह कैसी तहजीब है?


यदुराज सिंह बैस





Friday, 9 August 2013

उस अंतिम ठोकर को मैं अभी से सलाम करता हूँ,

ठोकर


हताशा,
प्रत्याशा,
या निराशा द्वारा
लगाई गई हर ठोकर ने,
अपमान,
तिरश्कार,
वहिस्कार द्वारा,
लगाई गई हर ठोकर ने;
अपकार,
अवमानना या
अक्रतज्ञता द्वारा   
लगाई गई हर ठोकर ने,
मुझ पर
एक उपकार अवश्य किया है,-
मुझे एक कदम उस ओर ढकेल दिया है
जिधर मेरे राम विराजमान हैं.

भले ही रही मेरी मजबूरी,
पर मेरे और मेरे प्रभु के बीच दी दूरी
तो घटती जा रही है,
वो अगम्य खाई-
जो दुर्गम पड़ती थी दिखाई,
इन ठोकरों की कृपा से
अपने आप पटती जा रही है.
प्रभु से बढ़ती निकटता में
ठोकरों की विकटता सुहावनी लगती है.
अब तो मेरे हृदय की
सारी कृतज्ञता
उस अंतिम ठोकर के लिए सुरक्षित है,
जिसकी मार से,
प्रवल प्रहार से,
मैं लड़खडाता हुआ,
त्राहि माम पुकारता हुआ,
करुनानिधान के,
अपने भगवान के,
हाथों में जा गिरूंगा.
और वे सरणागत-वत्सल,
मुझे उठा लेंगे,
क्योंकि
उनका साश्वत आश्वासन है,
कोटि विप्र वध लागहि जाहू,
आए शरण तजहूँ नहि ताहू   
वे रखेंगे मर्यादा अपने इस वचन की,
वे मुझे स्वीकारें गे अवश्य,
और देंगे जगह अपने चरणों में!
अतः
उस अंतिम ठोकर को
मैं अभी से सलाम करता हूँ,
प्रतीक्षा में उसके इस अहसान की,
सर झुकाए बैठा हूँ,
पलकें बिछाए बैठा हूँ.


यदुराज सिंह बैस

Monday, 5 August 2013

अब हर किसी जुबाँ पर बस सिर्फ तू हि तू है!

तू



एक तेरी ईंट लेकर,
एक मेरी ईंट लेकर,
जन जन से ईंट लेकर
यह महल जा बना है;

कुछ तू ने कोशिशें कीं,
कुछ मैं ने कोशिशें कीं,
जन जन ने कोशिशें कीं
तब शिखर ध्वज तना है.

किस किस ने क्या किया है?
किस किस ने क्या दिया है?
किस किस का श्रम जुड़ा है?
किस किस की आरजू है?

पर जैसे इस कहानी
पर फिर गया है पानी
अब हर किसी जुबाँ पर
बस सिर्फ तू हि तू है!


यदुराज सिंह बैस