उठो राही
दूरिओं की बात थी कुछ,
मौन निष्ठुर रात थी कुछ
वह अँधेरा,
बन सबेरा,
आज लेकर आ गया रवि का उदय है.
उठो राही, चलें, अब
कोई न भय है.
राह हँस कर मौन है जब,
रोक सकता कौन है तब,
सभी सपने
बने अपने,
सुरभि संकुल पवन भी अब त्वरण मय
है.
उठो राही, चलें, अब कोई न भय है.
भावना का यह उभरना-
झर रहा बन किरण झरना,
और रुक-रुक
झूम झुक-झुक
बिहारती फिरती फ़िजाएँ भर प्रणय
हैं.
उठो राही, चलें, अब
कोई न भय है.
रोशनी से तर प्रभाती-
स्वागतम के गीत गाती,
और मंजिल,
खोल कर दिल,
स्वयं पथ में आ खड़ी होकर सदय है.
उठो राही, चलें, अब कोई न भय है.
अब हमें करनी न देरी,
राह जोती राह मेरी,
हर विजय का-
फूल महका,
सुरभि से सन, लोटती पथ पर मलय
है.
उठो राही, चलें, अब
कोई न भय है.
यदुराज सिंह बैस