Monday, 26 August 2013

उठो राही, चलें, अब कोई न भय है.

उठो राही



दूरिओं की बात थी कुछ,
मौन निष्ठुर रात थी कुछ

वह अँधेरा,
बन सबेरा,

आज लेकर आ गया रवि का उदय है.
उठो राही,  चलें,  अब कोई न भय है.


राह हँस कर मौन है जब,
रोक सकता  कौन है तब,

सभी सपने
बने  अपने,

सुरभि संकुल पवन भी अब त्वरण मय है.
उठो राही,   चलें,   अब कोई न भय है.


भावना  का  यह  उभरना-
झर रहा बन किरण झरना,

और रुक-रुक
झूम झुक-झुक

बिहारती फिरती फ़िजाएँ भर प्रणय हैं.
उठो राही,  चलें,  अब कोई न भय है.


रोशनी से  तर प्रभाती-
स्वागतम के गीत गाती,

और   मंजिल,
खोल कर दिल,

स्वयं पथ में आ खड़ी होकर सदय है.
उठो राही,  चलें, अब कोई न भय है.


अब हमें करनी न देरी,
राह जोती    राह मेरी,

हर विजय का-
फूल   महका,

सुरभि से सन, लोटती पथ पर मलय है.
उठो राही,  चलें,   अब कोई न भय है.



यदुराज सिंह बैस






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