Wednesday, 31 July 2013

जो प्यार के लिए बना है- सड़ रहा है.

विडम्बना


जो प्यार के लिए बना है-
सड़ रहा है.
जो नफ़रत से सना है-
अकड़ रहा है.
जिसे गर्म होना था-
ठंडा है,
लोभ के हाथ में तोप है,
लाड़ के सिर पर डंडा है.
जहाँ जोश चाहिए-
वहाँ मुर्दनी छाई है,
और जहाँ होश चाहिए-
वहाँ मति बौराई है.

उनकी बेरुखी को
बड़े जतन से पाला जाए,
और मेरी अपरिमित चाहत को-
अगले जनम के लिए टाला जाए,
यह कैसी विडम्बना है?


यदुराज सिंह बैस










Friday, 26 July 2013

बस मेरे पास दुआएं हैं

क्या दूँ ?

(नेफा में अपनी बहिन की पहली (और अंतिम) राखी पाने पर )

होता यदि मैं जौहरी आज गहनों से तुम्हें सजा देता
धनवान कहीं होता इतना मुँह-माँगी चीजें ला देता
यदि राज्य कहीं होता मेरा तो जाने फिर क्या-क्या देता
बस, बहिन तुम्हारी राखी पर अपना सर्वस्व लुटा देता.

पर बहिन न मैं लक्ष्मी-पति हूँ जो धन का द्वार खुला दूँ मैं,
इतने साधन उपलब्ध नहीं जो सुख के साज सजा दूँ मैं,
है पास न कोई दिव्य वस्तु बदले में जो लाकर दूँ मैं.
राखी तो बाँधी है तुमने पर तुम्हीं कहो अब क्या दूँ मैं?

ऊषा से इंद्र धनुषिया रँग के सूत्र रेशमी ले आता,
स्नेह चाँदनी में बुनवा नक्षत्र नगीने जड़वाता
नरगिसी धूप सुरमयी छाँव का रंग अमर जब मिल जाता,
यदि कर पाया होता तो मैं तुमको ऎसी साड़ी लाता

संध्या के मानसरोवर से हंसों की मृदु अँगड़ाई का,
गौरव सनेह से सना हुआ मिलता सुरभित सोना नीका,
बनवा कर अगणित अलंकार रँग देता चन्द्र जुन्हाई का
ऐसा होता यदि हो पाता उपहार तुम्हारे भाई का.

है तुलसी सी भावना नहीं, जो नेह बिंदु ही ढरकाता,
आशीर्वाद ही गा देता, मैं काश बावरा हो जाता.
बदले में तुमको क्या दूँ मैं कोई सम चिन्ह न दिखलाता,
हे बहिन! तुम्हारी राखी से मैं आज सभी हलका पाटा.

तुम फूलो-फलो समोद बहिन, चंदा तक नित्य विहार करो,
भगवान तुहारे साथ रहे, तुम सब सपने साकार करो,
शुचि स्वर्ग सरीखा सौम्य सदा अपना छोटा संसार करो,
बस मेरे पास दुआएं हैं, हे बहिन! इन्हें स्वीकार करो.

यह उषा महावर बन चमके, यह निशा नयन में काजर दे,
हर दिवस तुम्हारा होली हो, हर शाम दिवाली ला कर दे.
आकर वसंत हे बहिन! तुम्हारे आँचल में खुशियाँ भर दे,
भगवान तुम्हारे जीवन को गंगा जल सा पावन कर दे.


यदुराज सिंह बैस (३० अगस्त १९६६)




भैया मेरे क्यों तुम इतने दूर हो?




मेरे भैया


भैया मेरे क्यों तुम इतने दूर हो?

मेरी सखियाँ राग-मल्हारें गा रहीं.
झूम-झूम कर खुशियाँ आज मना रहीं.
घर-घर में राखी पर राखी डोलती.
हो विभोर बहिनें भाई से बोलतीं-

भैया तुमको आज हृदय के छोर से,
जोड़ रहीं हूँ इस राखी की डोर से,
हो कर बड़े नित्य तुम फलना-फूलना,

और बहिन को भी न कभी तुम भूलना,
पर मैं बहिन अभागिन आज उदास हूँ,
राखी ले कर जो न तुम्हारे पास हूँ.
क्यों न यहाँ आए हो? क्या मजबूर हो?
मेरे भैया क्यों तुम इतने दूर हो?


जान गई तुम भारत के रखवान हो.
मातृभूमि के सेवक सजग जवान हो.
आज नहीं तुम इस घर के हो रह रहे,

अपितु कोटि धामों के हित दुःख सह रहे,

एक बहिन को छोड़ यहाँ से ज्यों गए,
कोटि-कोटि बहिनों के भाई हो गए.
आज करोड़ों बहिनें लेकर राखियाँ,
तुम जैसे भाई की देतीं साखियाँ.

ऐसे लाखों के भाई को ताक से,
भेज रही हूँ मैं भी राखी डाक से.
बाँध सभी की राखी जब अवकाश हो,
बंधवा लेना इस राखी के तार को.
केवल राखी ही ना बाँधी हाथ में,
भेज रही हूँ लाख दुआएं साथ में.


मेरे भैया आज देश के शूर हो.


शोक नहीं तुम चाहे जितने दूर हो.





यदुराज सिंह बैस.












Thursday, 25 July 2013

प्यार की स्वीकृति

स्वीकृति



                                    प्यार की स्वीकृति पाकर कहीं
भाग्य ने ली अंगड़ाई है.
किसी के मन के आँगन में
बज उठी ज्यों शहनाई है.


नूपुरों ने दी है आवाज,
चहक उट्ठा प्राणों का साज,
गमकते गज़रे, गंधित केश,
ठुमकते नयन, नशे में लाज.

नयन में कजरा रजनी भरे,
हाथ पर मेंहदी ऊषा धरे,
तुम्हारा करने को श्रृंगार
दिशाएँ सज कर आई हैं.


आज अँखियाँ गाती हैं क्यों?
लजाती मुसकाती हैं क्यों?
देखने की आकुलता लिए
ये आँखें शर्माती हैं क्यों?

यही तो हैं वीणा के तार,
कि जिनकी तू मधुरिम झंकार,
पंथ पर करने नीर फुहार
देख बदरी घहराई है.


लाज का रहा न अब कुछ काम,
किसी का होठों पर है नाम,
कि जिनकी बरसों से थे, अरी,
मेघ लाया करते पैगाम.

                                    भगा दे परदों का प्रतिहार,
छोड़ दे बंधक बंदनवार,
दौड़ कर उनका स्वागत करे
कि जिनकी तू पर्छईं है.


क्यों न अब दोनों खेलें खेल?
स्वर्ग का धरती से हो मेल,
प्यार की रीति गई है जीत,
ढहा कर पाबंदी की जेल.

अब न रुक पाएगा यह ज्वार,
न बंधन स्वीकारे गा प्यार,
श्रजन ने मन का कर श्रृंगार
नेह की जयोति जलाई है.


चूर कर दिन का प्रखर गरूर,
गोद में भर के मोतीचूर,
उमंगों के रँग से भरपूर
लुटाती संध्या है सिन्दूर.

                                    हठीली दुनिया के उस पार
धार में मिल जाएगी धार.
चुम्बनों की भाषा में मौन
प्रणय ने गाथा गई है.


यदुराज सिंह बैस


Sunday, 21 July 2013

ऐसा क्यों होता है कि जब दिन ढलता है, तो दिगंत का धवल शरीर किसी धधकती आग में जलता है?

ऐसा क्यों होता है?


ऐसा क्यों होता है
कि जब दिन ढलता है,
तो दिगंत का धवल शरीर
किसी धधकती आग में जलता है?
जैसे सोना पिघलता है?
और जब शाम होती है,
तो दिन की सारी भव्यता
खून के आँसू रोती है?

और ऐसा भी क्यों होता है
कि कोई
सर्वस्व खोने के बाद ही कुछ पाता है?
या पाने के लिए सब कुछ खोता है?
या यह
कि है ये कैसा दस्तूर
कि संध्या द्वारा लुटाया सिन्दूर
हो कर मजबूर
किसी और के सुहाग को छले?
और तब जाकर
किसी अभागे के घर चूल्हा जले.

अनेक विसंगतियों से भरी,
समय की गगरी,
कुछ यों छलकती है,
जैसे किसी अशांत झील में
कोई बिम्बित छबि -
बनती है,
बिगड़ती है,
और बिखरी हुई झलकती है.

इस उद्दंड काल की लगाम
कौन रहा थाम?
कोई तो है -
जो बदल कर रूप और नाम,
इस अविराम काल को
देता विराम.

इस दीनता-मलीनता को,
क्यों कोसें?
क्यों करें बदनाम?
यह तो बस शाम हो रही है,
आओ,
इस अस्तांगत सूर्य को
करलें प्रणाम!!
क्योंकि दिन ढल चुका है,
और यह सूर्य
जितनी आग उगल सकता था
उगल चुका है.
अब यह निश्चित है
कि रात आएगी,
दिन की विक्षिप्त भागमभाग
थम जाएगी,
और तब ममता भरी रजनी,
थके-हारे जख्मों पर
नींद का मरहम लगाएगी.

तुम भी थके लगते हो,
अपनों से ठगे लगते हो,
काँटों भरी डगर चले हो,
दूध के जले हो,
जख्म जो बह रहे हैं,
तुम्हारी यात्रा की
सारी कहानी कह रहे हैं.
तुम्हारी क्षमताएँ
बोझिल हैं,
लाचार हैं,
स्तंभित से हाव-भाव हैं
उलझे से विचार हैं.
अस्तु
समय आ गया है,
सो जाओ,
नींद के प्रशांत प्रांगन में
सब कुछ भुला कर
खो जाओ.

यदुराज सिंह बैस


Wednesday, 17 July 2013

सुई और भाला (उसने भोंका भाला, सह्य था, सह गया, मैनें हँस कर टाला.)

सुई और भाला



उसने भोंका भाला,
सह्य था,
सह गया,
मैनें हँस कर टाला.
उससे मुझे इसी की थी आशा,
फिर किस बात का करता तमाशा?
उसकी प्रतिशोधी भाले की धार,
न सकी मुझे मार,
मैं फूलता-फलता गया.
न रुका,
न झुका,
बस, मंजिल की ओर चलता गया.

मगर तुमने-
भाला नहीं
एक छोटी सी सुई चुभोई,
असह्य पीड़ा हुई,
आत्मा रोई.
सारा शरीर निढाल हो गया,
जैसे सब कुछ जाता रहा,
बुरा हाल हो गया.

दुश्मन का भाला
जख्मी तो कर गया,
पर दुश्मनी का ऋण उतर गया.
पर तुम्हारी सुई -
अत्यंत घातक साबित हुई,
रोम-रोम जल उठा,
दिल-दिमाक गल उठा,
आँखें सूनी हो गईं,
भावनाएं खो गईं,
दोनों होठ सिल गए,
और तुम
भले नजदीक रहे
पर बहुत दूर निकल गए.


यदुराज सिंह बैस


Monday, 15 July 2013

पानी का बुलबुला, हवा मिली फूल गया

बुलबुला

 

पानी का बुलबुला
हवा मिली
फूल गया,
अस्तित्व बन गया,
अहंकार तन गया,
असलियत भूल गया.
पानी की झिल्ली
उड़ाने लगी खिल्ली,
और जब पानी का
पतला नाज़ुक खोल
रिसा या टूटा,
हवा निकली
बुलबुला फूटा.
अस्तित्व मिट गया,
अहंकार पिट गया,
शून्य में सिमट गया.

इतना ही कथ्य था,
इस नन्ही कहानी में,
कि
हवा-
हवा में मिली,
और पानी-
पानी में.

बुलबुले का बनना,
पानी से प्रथक,
एक सर्वथा अलग
अस्तित्व का तनना,
फूलना-इतराना,
अनंतता के आगे,
छाती फुलाना,
आँखें मटकाना,
और इस सब के बाद
अचानक फूट जाना,
अलग अस्मिता का अड़ियल अहंकार
स्वप्न वत टूट जाना,
वैयक्तिकता की इकाई का
अनंत में खो जाना,
और द्वेत मिट कर
अद्वेत हो जाना,
आदि आदि
कुछ कहता है-
कि सारे बुलबुलों में
सिर्फ हवा-पानी रहता है.
ये नाम और रूप
मिटने के लिए ही बनते हैं,
और ये दंभ भरे आकार
सपनों की भांति ही तनते हैं.
बुलबुले का ये जीवन
असल में फानी है,
कहने सुनने के लिए
एक निरर्थक कहानी है.
समय आकाश द्वारा
रची मृगतृष्णा है,
न ही बुलबुला है,
और न ही कहीं पानी है.
अगर कुछ है तो
सिर्फ एक सत है.
और यही ऋषि-मुनिओं का मत है.
यही सत सबका आधार है,
इन बनते बिगड़ते
नाम रूपों का सार है,
वह तो अमिट है,
न तो बनता है
न बिगड़ता है,
सिर्फ वही है
जो हर हाल में बना रहता है.

जब मिलन का,
बिछोह का,
समस्त माया मोह का
हाल यही होना है,
तो मेरे भाई-
किस बात का ये रोना-धोना है.


यदुराज सिंह बैस





Saturday, 6 July 2013

कैसे मिलोगे?

कैसे मिलोगे?


रक्त से धोया हुआ अनुराग होगा,
वक्ष पर सीमांत जय का दाग होगा.

दृष्टि में होगा जयी भारत हमारा,
और अधरों पर अमर जय-हिन्द नारा.

भाल पर दैदीप्त नेफा की कहानी,
हड्डियों तक में धँसी हिन्दोस्तानी.

और लोहित भूमि का सन्देश लेकर-
जब कभी आऊँगा मैं अवकाश ले घर,

खोज कर तुमको मिलूंगा जहाँ होगे,
देखता तब तुम मुझे कैसे मिलोगे?

दूर होगे खून के धब्बों से डर के.
या गले से आ मिलोगे दौड़ कर के.

दर्द के अंदाज़ दिल के पार होंगे,
या की मेरे घाव भी श्रंगार होंगे.

युद्ध की अटखेलियाँ क्या खल उठेंगी?
गर्व से दीवालियाँ या जल उठेंगी?

देखता तब कौन सा उपचार दोगे?
त्याग दोगे या कि मुझको प्यार दोगे?




यदुराज सिंह बैस



कोई है?

कोई है?


है कोई
जो मेरे पास आए?
मेरे अभिषप्त हाथों से खिसक रही,
हवा के झोंकों से बुझ रही,
यह मशाल उठाए,
उसे फिर जलाए,
और आगे ले जाए?
है कहीं कोई?

चारों ओर
हो रहा कनफोड़ू शोर,
अँधेरा ही अँधेरा है.
रोशनी की हर किरण को
घने कुहासे ने घेरा है.
एक आंधी चल रही है.
उखड़ी हुई कब्रों से
सड़ांध निकल रही है.
और
भीड़ भरे चौराहे पर
विनय और शील की
होली जल रही है.

ऐसे में
क्या कहीं कोई है,
जो मेरे पास आए?
मेरी गाँठ में बंधे
इस पारस को चुराए?
और इस अँधेरे के उस पार जाकर
लोहे के दिलों को
सोने का बनाए?

है कोई?


यदुराज सिंह बैस