क्या
दूँ ?
(नेफा में अपनी बहिन की पहली (और अंतिम) राखी पाने
पर )
होता यदि मैं जौहरी आज गहनों से तुम्हें सजा देता
धनवान कहीं होता इतना मुँह-माँगी चीजें ला देता
यदि राज्य कहीं होता मेरा तो जाने फिर क्या-क्या देता
बस, बहिन तुम्हारी राखी पर अपना सर्वस्व लुटा देता.
पर बहिन न मैं लक्ष्मी-पति हूँ जो धन का द्वार खुला दूँ मैं,
इतने साधन उपलब्ध नहीं जो सुख के साज सजा दूँ मैं,
है पास न कोई दिव्य वस्तु बदले में जो लाकर दूँ मैं.
राखी तो बाँधी है तुमने पर तुम्हीं कहो अब क्या दूँ मैं?
ऊषा से इंद्र धनुषिया रँग के सूत्र रेशमी ले आता,
स्नेह चाँदनी में बुनवा नक्षत्र नगीने जड़वाता
नरगिसी धूप सुरमयी छाँव का रंग अमर जब मिल जाता,
यदि कर पाया होता तो मैं तुमको ऎसी साड़ी लाता
संध्या के मानसरोवर से हंसों की मृदु अँगड़ाई का,
गौरव सनेह से सना हुआ मिलता सुरभित सोना नीका,
बनवा कर अगणित अलंकार रँग देता चन्द्र जुन्हाई का
ऐसा होता यदि हो पाता उपहार तुम्हारे भाई का.
है तुलसी सी भावना नहीं, जो नेह बिंदु ही ढरकाता,
आशीर्वाद ही गा देता, मैं काश बावरा हो जाता.
बदले में तुमको क्या दूँ मैं कोई सम चिन्ह न दिखलाता,
हे बहिन! तुम्हारी राखी से मैं आज सभी हलका पाटा.
तुम फूलो-फलो समोद बहिन, चंदा तक नित्य विहार करो,
भगवान तुहारे साथ रहे, तुम सब सपने साकार करो,
शुचि स्वर्ग सरीखा सौम्य सदा अपना छोटा संसार करो,
बस मेरे पास दुआएं हैं, हे बहिन! इन्हें स्वीकार करो.
यह उषा महावर बन चमके, यह निशा नयन में काजर दे,
हर दिवस तुम्हारा होली हो, हर शाम दिवाली ला कर दे.
आकर वसंत हे बहिन! तुम्हारे आँचल में खुशियाँ भर दे,
भगवान तुम्हारे जीवन को गंगा जल सा पावन कर दे.
यदुराज सिंह बैस (३० अगस्त १९६६)