Saturday, 10 January 2015

नफरत का तूफान




जब से चली आँधियाँ हैं संतापों की,
ये दुनिया बन गई कचहरी पापों की।


रक्तबीज की फौज जुर्म से, दहशत से,
संस्कृति का उपहार मिटाने निकली है।
हैवानों की रचना में संलिप्त सोच
मानव का श्रंगार मिटाने निकली है।

लुत्फ ले रही जख्मों का, चीत्कारों का,
बजा दुंदुभी नफरत भरे अलापों की।
जब से चली आँधियाँ हैं संतापों की,
ये दुनिया बन गई कचहरी पापों की।


दंभ द्वेष ने लगा मुखौटा जन्नत का
अमन चैन के चमनों को बरबाद किया।
लिख डाला इतिहास लहू के हर्फों से
धरती पर ही नया नर्क ईजाद किया।

ये कैसा फलसफा कि जिसके पन्नों में
लब्ज लब्ज पर छाप पड़ी अभिशापों की।
जब से चली आँधियाँ हैं संतापों की,
ये दुनिया बन गई कचहरी पापों की।


झुलस गई हर फसल प्यार की, इज्जत की,
जोर जुल्म के आग उगलते नारों से।
सहमी सहमी दसो दिशाएं लगती हैं
इस जुनून की नर-भक्षी हुंकारों से।

उन्मादी अवसादों को प्रश्रय देती-
पशुता में है जगह न पश्चातापों की।
जब से चली आँधियाँ हैं संतापों की,
ये दुनिया बन गई कचहरी पापों की।

जन्मा था इंसान, दरिंदा बन बैठा
अल्ला या भगवान उसे धिक्कार रहा।
मक्शद की असफलता से शरमिंदा सा
धर्म और ईमान उसे धिक्कार रहा।

दुर्मति की बदली घहराती जाती है
झड़ी लगाने वहशी घ्रणित प्रलापों की।
जब से चली आँधियाँ हैं संतापों की,
ये दुनिया बन गई कचहरी पापों की।


खोने-पाने का न कभी लेखा होता,
दहशत की दूकान जहाँ पर चलती है।
पाक साफ नीयत के दावों से छन कर
घ्रणित इरादों की ही झलक निकलती है।

फतवों की दोगली नजर का क्या कहना
याद दिलाती जो जहरीले साँपों की।
जब से चली आँधियाँ हैं संतापों की,
ये दुनिया बन गई कचहरी पापों की।





यदुराज
कानपुर
09 जनवरी 2015


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