Sunday, 18 January 2015

वितृष्णा

वितृष्णा




हर बूंद पानी की
कह रही कहानी
मदहोश जोश की,
मस्त जवानी की,
खुद पर इतराने की,
और उदगम से दूर,
निजता से चूर,
अपने दो चुल्लू सागर में
डूबने उतराने की
या खुद में डूब जाने की।

यह कहानी है
बूँद भर पानी की
जिसकी चाहत है
उस ओर निकल जाने की
जिस ओर
करे न बोर
पीछे से पुकारती
ममता का शोर।

स्रोत  तो पीछे की कहानी है,
जो यों भी बेमानी है;
जो बहे,
एक जगह रुका न रहे,
वही तो असली पानी है।
स्रोत  से दूरी बढ़ाना,
अपने विरचित सागर की ओर जाना,
यही तो जीवन है
यही तो जवानी की निशानी है।



उनकी वितृष्णा पर
दुःख से मन भर गया,
जैसे आँखों के आगे,
गहरा अँधेरा,
उतर कर पसर गया।
पर किसे परवाह है?
पानी की बूँद की तो,
पीछे की ओर नहीं,
सागर की ओर राह है।


पेड़ के पत्तों का,
आकाश से ही होता लगाव।
धरती में धँसे मूल को
वे भला क्यों दें भाव?
बड़ी ही जटिल हैं
जीवन की राहें;
यहाँ उच्चता पर ही होतीं
सब की निगाहें।


उनकी वितृष्णा पर
क्यों बेकल हो?
इतना समझ लो,
तुम तो बस गुजर गया पल हो,
एक बीता हुआ कल हो,
व्यतीत हो,
पल-पल बन रहे अतीत हो।
एक व्यथा भरे  गीत,
जो भावना की ज्वाला में जल चुका।
ऐसा सूरज,
जो बूढ़ा हो चुका,
ढल चुका।
वे आगे बढ़ रहे हैं।
भविष्य की ऊँचाइयाँ चढ़ रहे हैं।
पीछे की गाथा,
पीछे ही छोड़ चुके।
निचली सीढ़ी से,
पैर हटा चुके,
अपना मुख मोड़ चुके।
आगे की चुनौतियों से
नाता जोड़ चुके।
यही सही भी है,
कि राही
आगे की ओर देखे,
आगे की राह ताके,
ऐसे में भला कौन
अँधेरी
भूली विसरी
गलियों में
लौट कर झाँके?

भावों के बंजारे!
लुटे पिटे हारे!
अब शाम हो चुकी है।
सूरज की दबंगई,
अपनी आँच खो चुकी है।
दिन भर चले हो,
मुड़-मुड़ कर सौ बार,
हाथ भी मले हो,
अब सो जाओ।
सपनों की दुनिया में खो जाओ।
नींद के सरोवर में
थकान घुल जाएगी।
आँसू बहाना नहीं,
बड़े ही जतन से
सँजोई सँवारी
लाज धुल जाएगी



यदुराज

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